आज व्यथा भी व्यथित है।
क्या से क्या बन गया मनुष्य है।
तुलना खुद की पशु से करने लगा आज है।
कोई कर रहा निर्बल ओर निर्धन का शोषण।
किसी की पाश्विक दृष्टि बच्चों पर आज है।
आज व्यथा भी व्यथित है।
आज व्यथा भी व्यथित है।
नीचता की हर सीमा लांघ रहा मनुष्य है।
निर्ममता, निर्दयता और निरादर बन गई पहचान है।
कहाँ गई वह दया , आदर व सम्मान की भावना आज है।
कहाँ गए वह सदाचारी गुण जिन्हें भूल गया आज मनुष्य है।
आज व्यथा भी व्यथित है।
आज व्यथा भी व्यथित है।
हृदय विदारक घटनाओं से पट रहा संसार है।
यह सब देख लेखनी मेरी बहा अश्रुधारा आज है।
रो रही स्वर्ग में बैठे हमारे महान पार्थिवों की आत्मा आज है।
मानवता भूल पशु बन रहा मनुष्य है।
आज व्यथा भी व्यथित है।