मैं जब इक नन्ही बच्ची थी, मां के आंचल में रहती थी।
हर पल मुस्काती मेरी मां, नजरों में समाई रहती थी।
मैं हंसती थी, वो हंसती थी, मैं रोती तो वो भी व्याकुल हो जाती थी।
वो मेरा नखरे करना और बात बात पे रूठ जाना
फिर मां का नाज़ उठाना, और हंस कर मेरा मान जाना।
सुबह सुबह आकर मां का, मेरे बालों को सहलाना
और दूध का प्याला संग लाना, फिर हौले से मुस्काना।
वो मेरी संग सहेली थी, हर दम मुझको सिखलाती थी,
हर पल वो निहारा करती थी, और मैं हर पल इठलाती थी।
वक्त गुजरा और गुजर गया, मेरे उर नन्हा इक फूल खिला।
मैं भी एक मां हूं आज, पर शायद मैं उतनी सुखी नहीं,
क्योंकि मेरे और बच्चों के चेहरों पर वो सुकून की हंसी नहीं।
न ही वो हंसी ठिठोली है, न ही उतना नखरे करना।
न बात बात पे रूठ जाना और हंस कर यूंहीं मान जाना।
मुझे याद है, मेरा नन्हा। मुझे याद है, मेरा नन्हा।
उसका मुस्काना, हर पल मेरा उसको तकना और उस पर निहाल हो जाना।
पर जब लगता कि जाना है मुझको तो अपने ऑफिस
बस झटपट सब करना, घर के कामों का निपटाना।
सुबह-सुबह उसका रोना कि मां तुम आज नहीं जाना।
मां को तो जाना ही है, हर पल उसको यह समझना।
बच्चे से दूरी होने पर, पल भर में विह्वल हो जाना
फिर जाने की मजबूरी पर, आंखों का भर-भर आना
कभी-कभी मुझको लगता, कभी-कभी मुझको लगता,
मुझ बिन रोता होगा लाल मेरा, हर पल करता होगा याद मुझे,
यह सोचना और सिहर जाना।
इक दिन उसको चोट लगी, चाहा उड़कर पहुंच जाऊं मैं घर।
सोचा जाऊं। जब तक पहुंची, तो रो रो कर उसका सो जाना,
बस क्या बोलूं, उस पल मन का, इस व्याकुलता से भर जाना
कि नन्हा मेरा जब दर्द में था, तो पास न मेरा पहुंच पाना।
स्कूल से आने पर उसके, साथ न मेरा हो पाना
बस दूर-दूर से फोन पर ही, उसको कहना, कि यह करना और वह खाना।
जब पहुंचूं, तो उसका छज्जे से तकना, दौड़ के आना और लिपट जाना।
आज भी आता है याद, आज भी आता है याद… मुझे देख, वो चेहरा खिल जाना।
सोचती हूं, पल भर के लिए रुक कर, सोचती हूं, पल भर के लिए रुक कर,
एक मेरी मां थी, एक मैं मां हूं। वो हर पल थी साथ मेरे
और मैं हर पल जुदा हूं। मैं हर पल जुदा हूं।
ये सफर है कैसा अनजाना…