दिल्ली के 14 गेटों में एक है तुर्कमान गेट। इसे पुरानी दिल्ली के बाशिंदों की लोकल भाषा तुरकमान गेट भी कह कर पुकारा जाता है। पुरानी दिल्ली के चारों तरफ की दीवार पर बने एक समय ये 14 दरवाजे दिल्ली से 14 अलग-अलग स्थानों को जाने के नाम के साथ अधिक प्रसिद्ध थे।
बहरहाल, दिल्ली गेट से करीब एक डेढ़ किलोमीटर दूर रामलीला ग्राउंड से पहले तुर्कमान गेट है। कहा जाता है कि 13वीं शताब्दी के इस खूबसूरत शहर शहाजहानाबाद में इसे शहर का दक्षिणी गेट कहा जाता था। यहां सूफी संत हजरत शाह तुर्कमान बयाबानी की दरगाह है। दरगाह के करीब ही इस गेट का नाम उन्हीं के नाम पर तुर्कमान गेट रखा गया। यह भी कहा जाता है कि सूफी साहब की यह दरगाह शहाजानाबाद से भी पहले की है। सूफी साहब की मृत्यु 1240 सीई में हुई थी। दरगाह के आगे कुछ दूरी पर यह तुर्कमान गेट 1650 में बनवाया गया था।
यही से कुछ दूरी पर पुरानी दिल्ली में रजिया सुल्तान की मजार, काली मस्जिद, नवाब रुकुन उद दौला मस्जिद और पीछे कुछ एक एतिहासिक हवेलियों जिनमें मीर फरकर खान और हकसर की हवेली भी शामिल हैं की तरह यह भी गुमनामी में खोई हुई है। यह दरगाह इतनी प्रसिद्ध भी नहीं है जितनी अन्य। दरगाह के बराबर में ही एक ट्राइनिटी चर्च भी है। बयाबानी का मतलब शोर शराबे और रिहायशी बस्ती से दूर जंगल के एकांत को कहा जाता है। उस दौर में सूफी संत हजरत शाह तुर्कमानी यहां आकर ठहरे थे। बयाबानी उनके नाम से जुड़ा है।
मुगल काल के 14 गेटों में दिल्ली में बचे कुछ गेटों में दिल्ली स्टॉक एक्सचेंज और आसपास मल्टी स्टोरी इमारतों, अवैध निर्माण के बीच अभी भी डटा खड़ा है तुर्कमान गेट। आसपास के निवासी बताते हैं कि इसकी कोई खास देखभाल नहीं की जाती। इसके चारों तरफ के हालत देख कर इसकी दुर्दशा का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। इसके आसपास अवैध कब्जे, रिक्शा चालकों ऑटो वालों, कारों और अन्य वाहनों की पार्किंग हमेशा बनी रहती है। आसपास रेहड़ी खोमचे वालों का जमावड़ा लगा रहता है। दिन ही नहीं बल्कि आधी आधी रात तक भी यहां के नीचे चबूतरे पर पर लोग बैठे गपियाते रहते हैं। भिखारियों और नशेड़ियों का तो और आसपास का इलाका एक तरह से अड्डा बना हुआ है। स्कूल के लिए निकलने वाले बच्चे यहीं तुकर्मान गेट के आगे खड़े होकर अपनी स्कूल बसों, तांगों रिक्शा पर आते जाते और इंतजार करते दिखाई दे जाते है। यहीं तुर्कमान गेट की बाउंड्री के आसपास कान साफ करने वालों का भी मजमा लगा रहता है।
एक तरह से तुर्कमान गेट पुरानी दिल्ली के कुछ एक इलाकों और नई दिल्ली यानी कनॉट प्लेस वगैरह जाने वालों का एक मीटिंग प्वाएंट की तरह भी इस्तेमाल में लाया जाता है। दरवाजे के चारों तरफ लगी ग्रिल के कारण अंदर कोई नहीं जा सकता। लेकिन जाने वाले फिर भी कहां चूकते हैं। ग्रिल फांद कर जैसे तैसे अंदर पहुंच ही जाते हैं।
वैसे टूरिस्टों को दिखाने के लिए यहां एक केयर टेकर है वह कहने पर दरवाजा खोल देता है। हां, कुत्तों वगैरह के लिए अंदर जाने में किसी प्रकार की कोई कठिनाई नहीं है। उन्हें ग्रिल रोक नहीं सकती। तीन चार तरफ से आकर मिलने वाले तुर्कमान गेट के इस जंक्शन पर वाहनों के कारण काफी अफरातफरी मची रहती है। जाम लगना तो लगभग रोज का सुबह से शाम तक तय ही है। यहां किस रास्ते से कौन तेजी से अपना वाहन दौड़ाता चला आए कह नहीं सकते।
तुर्कमान गेट से पहाड़ी इमली, सीताराम बाजार, हिम्मतगढ़ आदी इलाके में जाने के लिए एक जंग जीतने जैसा अनुभव हो सकता है। पतली और संकरी गलियों के साथ कब्जों की भरमार और अवैध बहुमंजिला इमारतों के आगे तुर्कमान गेट बौना नजर आने लगा है।
कहा जाता है कि दिल्ली के इन दरवाजों पर एक समय में हर गेट पर एक पुलिस चौकी हुआ करती थी। गेट पर दरवाजा लकड़ी का बना था। गेट पर हर वक्त एक सिपाही जिसे निगेबान कहते हैं। एक हाथ में लकड़ी की लाठी या बेंत और कमर में तलवार लटकाए मुस्तैद खड़ा रहता था।
इन दरवाजों को हर शाम मगरीब की नमाज के वक्त बंद कर दिया जाता था। कहा जाता है कि दिल्ली की दीवारें बाहर से आने वाले दुश्मनों की फौजों को रोकने के मकसद से नहीं बल्कि दिल्ली के बाहर जंगलों में सक्रिय डैकतों और लूटरों को रोकने के लिए थी जो कि दिल्ली में आने और यहां से जाने वाले मुसाफिरों और कारोबारियों को लूटते थे और मार कर जंगल में बहने वाली नहर में फेंक दिया करते थे जोकि कि अजमेरी गेट की तरफ से बह कर आती थी।
इसके अलावा तुर्कमान गेट और अजमेरी गेट को 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम के तौर पर भी जाना जाता है। वैसे, तो अंग्रेजों ने दिल्ली के सभी दरवाजों पर विद्रोह को दबाया था। लेकिन कुछ एक पर काफी रक्तपात भी हुआ था। तुर्कमान गेट का इस्तेमाल इश्तेहार लगाने के लिए किया जाता रहा है। यह गेट 1976 में इंदिरा गांधी के समय में इमरजेंसी के समय का भी गवाह है।
तुर्कमान गेट से करीब आधा एक किलोमीटर दूरी पर है अजमेरी गेट। शाहाजनाबाद के साउथ वेस्ट में बने इस गेट का निर्माण 1644 में किया गया था। कहते हैं 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल यहां से भी भरा गया था। जैसा की नाम से ही जाहिर है। यह गेट राजस्थान में अजमेर शरीफ की जाने का रास्ता था। इसलिए इसका नाम अजमेरी गेट रखा गया। इसके करीब ही एक मदरसा हैदराबाद के पहले निजाम के पिता नवाब ग्यासुद्दीन बहादुर ने 1811 में बनवाया था। जो बाद में दिल्ली कॉलेज में परिवर्तित हो गया और आज दिल्ली यूनिर्वसिटी में एक नई इमारत में शिफ्ट होकर एक नामी कॉलेज है। अजेमरी गेट के करीब ही एंग्लो अरेबिक स्कूल है। अब अजमेरी गेट के चारों तरफ की दीवारें तो रही नहीं। उन्हें बाजार, रिहाइशी कालेनी, सड़कें और अन्य इमारतें बनवाने के लिए तोड़ दिया गया। अब तो उनका नामों निशां भी कहीं पर नहीं है।