गर पेड़ों को न आहुति चढ़ाया होता,
धरा पे जो इन को बचाया होता,
तो ये सैलाब, जो आया है,
न आया होता।।
न आज उजड़ते तेरे रोशन ये चमन,
रौंद फूलों को घर न, अपना बनाया होता,
जो न छीनते वादियों से उनकी हरियाली,
तेरे दर पे भी न उदासी का ये साया होता।।
अपने लालच के लिए धरती मां को रौंद दिया,
अब क्यों रोता है जो, छिना है तेरे घर का दिया,
रूठी ये प्रकृति और ये खुदाई, कीमत देख तूने क्या है चुकाई,
तूने जो वृक्ष न कटवाए होते,
काश नए वृक्ष लगाए होते,
तूने नदियों को जो छेड़ा है, न छेड़ा होता,
जो उनका रास्ता घेरा है, न घेरा होता,
जो तूने उनके दामन को न बांधा होता,
तो आज उजड़ा न तेरा भी बसेरा होता।।
शिव ने तीसरी आंख जो खोली है,
न खोली होती,
और ये धरती जो है डोली, न डोली होती,
और न ही यूं प्रलय ही आया होता,
धरती पे वृक्षों का जो सरमाया होता।।
तूने धरती के जो अरमान संजोए होते,
तो तेरे अपने न यूं सैलाब में खोए होते,
कितनों ने खुले में कई-कई रात काटी हैं,
न यूं मलबे में मासूम इतने सोए होते,
न गुड़िया अपने मां-बाप से बिछड़ी होती,
जो न ये जंग तूने पेड़ों से छेड़ी होती,
तूने धरती पे दया जो ये दिखाई होती,
तो हर तरफ न यूं त्राही-त्राही होती।।
अब तो जाग ओ इंसान, अब तो संभल जा,
फिर तू रोएगा जब कुछ न बाकी बचेगा,
गर अब भी न तू संभला होगी बहुत ही तबाही,
न बचा सकेगी तब, तुझको तेरी भी खुदाई,
अब तो बस रुक जा, रुक जा, तू यहीं थम जा,
थाम ले पेड़ों को बाहों में, कटने से बचा,
तू ये जान ले इससे ही है तेरी हस्ती,
प्रकृति की जान इनमें ही है बसती,
जो ये बचेंगे, तब ही तो तू जी पाएगा,
वरना फिर बार-बार ऐसा ही प्रलय आएगा,
वरना फिर बार-बार ऐसा ही प्रलय आएगा।।
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